Tuesday 10 May 2016


उत्तर प्रदेश : संघर्ष और वजूद की लडाई ...
--- अराजकता और वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठ कर बिकास का मार्ग प्रशस्त करने की आवश्यकता

जब उत्तर प्रदेश में जातिगत आधार उभर रहे हो, सर्व समाज के बजाय जातिगत मूल्यों को अहमियत दी जा रही हो और उनके संघर्ष और स्वाभिमान को अपने संघर्ष और स्वाभिमान की ढाल बनाने की परम्परा चल निकली हो तो ऐसे में कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के बयान पर प्रतिक्रिया होनी भी थी और हुई भी . लेकिन माफ़ी मागने के बावजूद रीता बहुगुणा को संगीन धाराओ गिरफ्तार करने और उधर लखनऊ स्थित उनके घर को आग के हवाले करने के कई निहतार्थ निकले गए .भले ही ऐसा करके रीता बहुगुणा जोशी के उस अपराध से कही बड़ा अपराध क्यों न हो गया हो .लेकिन एक बात तो तय है की लखनऊ के सबसे सुरक्षित और सम्बेदंशील स्थान पर पुलिस की मोजुदगी में चंद लोगो ने अमानवीयता का जो नंगा खेल खेला उसने बिपक्षी दलों को कानून ब्यवस्था के मुद्दे पर सत्ता में आई मायावती सरकार को घेरने का मौका जरूर दे दिया  ....
राजनीति में कटाक्ष करने की परम्परा नई नहीं है और कटाक्ष करते - करते जाने -अनजाने कई बार जुबान से कुछ ऐसा निकल जाता है जिसको लेकर बवाल हो जाता है.चाहे वह वरुण गाँधी का मामला हो या आजम की जया पर टिप्पडी, प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी का विहार के डीएनए वाला भाषण या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिया गया बयान .सभी को लेकर हंगामा हुआ राजनीतिक सरगर्मी तेज हुई लेकिन बात आलोचना तक ही सिमट गई लेकिन सरे आम पुलिस की मौजूदगी में घर फूकने वाली घटना पहली बार हुई थी .अगर यह मान लिया जाय की इससे मुख्यमंत्री मायावती और उत्तर प्रदेश सरकार को कोई लेना देना नहीं था तो कुछ कतिपय लोगो ने निश्चित ही उनकी साख को बट्टा लगाया था और इसमें उत्तर प्रदेश पुलिस भी कटघरे में है तो ऐसे लोगो के खिलाफ कारवाई में देरी क्यों ...?
लेकिन अगर निहतार्थ बड़े है और इसका मकसद कांग्रेस को बैक फुट पर लाना था तो निश्चय ही यह प्रयोजन सफल रहा है लेकिन सवाल ज्यो का त्यों है की आखिर इससे समाज और देश का कितना भला हुआ है और इससे हुए नुकसान की भरपाई आखिर कैसे होगी  ...?
भले ही यह तत्कालीन जद्दोजहद थी उत्तर प्रदेश की दो ऐसी कद्दावर महिला राजनीतिज्ञों के बीच की .  जिसमे एक चर्चित और प्रगतिशील पिता की पुत्री थी तो दूसरी संघर्षो के बीच तपकर अपना खुद का वजूद बनाने वाली . लेकिन दुर्भाग्य से यह जद्दोजहद बिकास की नहीं संघर्ष और वजूद की थी  . कांग्रेस जहा बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़े उन वर्गो और जातियो को अपने साथ लाने की हर संभव कोशिश कर रहीं थी जो कभी उसके साथ थे लेकिन दूसरी तरफ बसपा अपने किले को दरकने नहीं देना चाहती थी और अपना वजूद बचाने की हर वह मुमकिन कोशिश कर रही थी  जो वह कर सकती थी  .. लेकिन इसके बीच उत्तर प्रदेश का कितना भला हुआ  ..?.क्या इस लडाई से उत्तर प्रदेश के बिकास की राह अवरुद्ध नहीं हुई  ..? जरूरत है वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर उत्तर प्रदेश को बिकास के पथ पर आगे ले जाने की जिससे यहाँ का हर बाशिंदा खुशहाली की सांस ले सके ...,जो ऐसा करेगा वही उत्तर प्रदेश का असली नेता कहलाएगा .......
इन सबसे इतर अगर अगर केवल राजनीति की बात की जाय तो एक कहावत खुद बखुद एक बार फिर से चरितार्थ होती दिखाई दे रही है कि राजनीति में कोई स्थाई रूप से दोस्त या दुश्मन नहीं होता . .. उत्तराखंड में शक्ति परीक्षण के दौरान बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का एक दूसरे से हाथ मिलाना यही साबित करता है तो मौके के अनुरूप अपने सिद्धांतो को बदलने की कला ही राजनीति कहलाती है लेकिन राजनीतिक पार्टियों को यह भी समझना होगा कि उत्तर प्रदेश की लड़ाई वजूद की लड़ाई है जिसमे मतदाता चाल , चरित्र और चेहरा सभी परखेगा और 2014 के लोकसभा चुनाव की तर्ज पर जब भी जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर वह मतदान करेगा उसकी कसौटी पर केवल और केवल बिकास होगा  ..... 
ई वी एम के जिन्न पर सियासत . . 
. . अमेरिका में वैलेट पेपर से होती है वोटिंग तो जर्मनी और आयरलैंड ने ईबीएम पर लगाईं रोक ....

 . . . . कहते है जिन्न अच्छे भी होते है और बुरे भी . कुछ उन्हें आसमान से उतरा फ़रिश्ता कहते है तो कुछ आफत का परकाला . कुछ यही हाल आज ई वी एम मशीन का है .जिस ई वी एम मशीन को तुलना कल तक लोग भारतीय लोक तंत्र की उस देवी से करते नहीं थकते थे जो आज भी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर न्याय और निष्पक्षता को सुनिस्चित करती है .आज उसी को कोस रहे है .लेकिन एक बहुत पुरानी कहावत की न निगलते बने न उगलते राजनैतिक पार्टिया और उसके नेता इसी भवर जाल में फसे दिखाई दे रहे है वह न तो खुल कर ई वी एम को बईमानी का पिटारा कह पा रहे है और न ही खुल कर आलोचना ही .लेकिन वह अपनी यह आवाज़ काफी बुलंदी से उठा रहे है की इस मशीन से तकनीकी जादूगरी की जा सकती है और प्रमाण के रूप में उन्होंने ऐसा कर के दिखाया भी ...विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने तो फिर से बैलेट पेपर से चुनाव की वकालत तक कर दी थी ... 
जिस तरह हर तस्बीर के दो पहलू होते है अब देखने वाले पर है की कौन किस नजर से देखता है . इस मशीन के ज़रिए भारत में बन्दूक के दम पर बैलेट की परम्परा पर अंकुश ही नहीं लगा समय और सुबिधा भी मुहैया हुई .मतदान सरल हुआ परिणाम दिनों के बजाय घंटो में आने लगे ..एक तरह से कहे की धन और धान्य दोनों की बचत इस मशीन के ज़रिए संभव हुई ..अब जरा इस मशीन का दूसरा पहलू भी जान लीजिए जिस मशीन से मतदान और मतगणना की प्रक्रिया तेज और बेहद सरल हो जाती है उसी मशीन को विश्व के सबसे ताकतवर और बिकसित देश अमेरिका ने नकार दिया है आपको जान कर शायद हैरानी हो की जिस बैलेट पेपर से वोटिंग को हम पुराने ज़माने की विधा कहते है उसी विधा से आज भी अमेरिका में मतदान और मतगणना होती है .यही नहीं जर्मनी और आयरलैंड के अधिकारियो ने ही नहीं वहां की सुप्रीम कोर्ट ने भी ई वी एम मशीन के प्रयोग पर रोक लगा दी है . .....
अब सवाल है ई वी एम पर दोष मढ़ने और इसको लेकर राजनीतिक हाहाकार की जिसके चलते भारत में राजनीतिक पारा न सिर्फ गरम गया है बल्कि इस मशीन के प्रयोग को लेकर दुनिया भर में एक बहस को भी हवा मिल गई है .अब जहाँ बहस होगी वहां खेमे बंदी और गुटबंदी भी होगी .एक खेमा उनका होगा जो इसे और इसके गुणों के प्रसंसक होगे और यह भी हो सकता है की ऐसा करना उनकी कही न कही कोई मज़बूरी भी , और दूसरा खेमा वह जो इसको लेकर कही न कही से आशंकित है . थोड़ा पीछे जाए तो कांग्रेस की पिछले लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद भी सवाल उठा था . इसको लेकर कांग्रेस की जादूगरी के बजाय ई वी एम की जादूगरी की चर्चा भी सतह पर आई थी . लेकिन ढके छुपे शब्दों में ...... हाल के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी केजरीवाल समेत पूरी आम आदमी पार्टी ने न सिर्फ ईबीएम पर सवाल उठाया था बल्कि चुनाव आयोग तक इसको लेकर शिकायत तक दर्ज कराई थी  ... 
लेकिन लाख टेक का सवाल है की लोकतंत्र और उसकी ब्यवस्था को संदेह से परे रखने के लिए उचित पहल को क्या नाकारा जा सकता है क्या उन सवालों के समाधान की कोई सार्थक कोशिश नहीं की जानी चाहिए जिसने लोकतंत्र की जड़ को झकझोर दिया है आम आदमी भी जानना चाहता है की ई वी एम मशीन को लेकर जो सवाल उठे है वह कितने सही है और ऐसे किसी आरोप को दरकिनार करने का आधार क्या है ,अब जाहिर है सवाल उठा है तो उसके जबाब भी तलाशे जाने चाहिए .......

समलैंगिकता : संस्कृति ,परिवार और कानून का बिखंडन
. . सामाजिक मर्यादाओ के साथ परवर्तित होने वाले कानून के स्वरूप से उठेंगे कई बवंडर .......

...... हम सबने सुना की मुजफ्फरनगर के शामली में दो लड़कियों ने सामाजिक लोकलाज को दरकिनार कर एक- दुसरे से मंदिर में शादी रचा ली .दुर्भाग्य से इसमें से एक लड़की पहले से शादीशुदा थी . उन्होंने कोर्ट से इस शादी को बैधानिक मान्यता देने की अपील की . भले ही पश्चिमी देशो के लिए यह सामान्य सी बात हो लेकिन भारत के उत्तरप्रदेश समेत अधिकांश प्रदेशो के लिए झंकृत करने वाली खबर है .मैं यह नहीं कहता की इससे पहले इस तरह की घटनाए हुई ही नहीं लेकिन सामाजिक वर्जनाओ के चलते इनकी संख्या उंगुलियों में ही है .यंहा सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर लोगो को भी यह समझने की जरूरत है की समय के साथ समाज में परिवर्तन तो आता है लेकिन इस परिवर्तन की दिशा और दशा पर नियंत्रण गडबडाया तो पूरा सामाजिक ढांचा ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा क्योकि कानून के साथ -साथ सामाजिक ढांचा भी लोगो को बुराइयों और कई जघन्न अपराधो से दूर रखता है .युद्ध नीति के लिहाज से कहे तो किसी देश को पूरी तरह परास्त करने के लिए उस देश की संस्कृति , सभ्यता और सामाजिक ताने -बाने को भी तोड़ना होगा तभी उन पर पूरी तरह नियंत्रण संभव हो सकता है ......
समलैंगिकता को मानवाधिकार से जोड़ने वाले लोग अगर दिल्ली उच्च न्यायलय के फैसले को निजता के अधिकार और फैसले की जीत बता कर खुश हो रहे है तो उन्हें आने वाले सामाजिक बवंडर के लिए भी तैयार रहना होगा .कही ऐसा न हो की चन्द लोगो के मन मुताबिक करने की इच्छा को ध्यान में रखते -रखते हम बहुसंख्यक समाज की भावनावो का अनादर कर बैठे .उदाहरण के लिए कुछ समय पहले एक पश्चिमी देश में महिलाओं ने इस लिए प्रदर्शन किया की उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं दिए जा रहे है जानते है इसके पीछे उनका तर्क क्या था कि जिस तरह मर्द कमर के ऊपर बिना कुछ पहने या सीने वा ऊपरी जिस्म की नुमाइश करते बाहर घूमते- फिरते रहते है वह अधिकार उन्हें क्यों नहीं है ..मन मुताबिक करने के अधिकार के लिहाज से कहे तो उनकी मांग कतई गलत नहीं है लेकिन जरा सोचिये उनकी यह मांग मान ली जाए तो बहुसंख्यक समाज पर इसका क्या असर होगा ,अगर भारत में भी कल को कुछ लोग ऐसी ही कोई मांग उठा दे तो क्या हम तब भी यही कहेंगे की यह मानवाधिकार का मामला है .....
भारत वर्ष को विश्व के सबसे सभ्रांत देशो में गिना जाता है .यंहा की संस्कृति और सभ्यता को सराहा जाता है ,लेकिन पश्चिमी देशो से तुलनात्मक रूप में यह बिलकुल भिन्न है .ऐसे में समलैंगिकता को मान्यता मिलने के साथ न सिर्फ परिवार और समाज बल्कि कानूनी स्वरूप भी बदल जाएगा .उदाहरण के लिए भारतीय दंड विधान की धरा ४९७ यानि पर स्त्री गमन कानूनी भाषा में कहे तो जारकर्म ...इस कानून के तहत यदि कोई पुरुष किसी ऐसी ब्यास्क महिला की इच्छा पर भी उसके साथ सम्बन्ध बनाता है जो पहले से शादी शुदा है तो उस स्त्री की सहमति और इच्छा का कोई मतलब नहीं होगा और ऐसा करने वाले पुरुष को दो साल की सजा हो सकती है लेकिन सवाल यह की आपसी सहमति और बिना किसी जोर दबाव से बने सम्बन्ध के बावजूद अपराध और सजा क्यों ....? आपसी सहमति और निजता के अधिकार की बात करे तो क्या एक ब्यास्क लड़की और लड़का किसी होटल में जाए और खुद को आपस में दोस्त बताते हुए एक कमरा रहने के लिए मांगे तो मिल जाएगा, नहीं ,क्योकि अधिकतर होटल मालिक अपने रजिस्टर में रिश्ते के स्थान पर दोस्त लिखना कतई पसंद नहीं करेंगे और गलती से कही पुलिस मेहरबान हुई तो सीधा भारतीय दंड विधान की धरा २९४ के तहत सार्ब्जानिक अश्लीलता का मामला दर्ज कर देगी फिर आपसी सहमति का मतलब क्या और बिना किसी शिकायत के अपराध कैसे ...?क्या कोई पुरुष और महिला , लड़का और लड़की आपस में मित्र नहीं हो सकते और एक साथ एक कमरे में नहीं रह सकते और अगर रहते है तो अपराध क्यों और सजा कैसी ..? जाहिर है स्वेक्षा से बनने वाले समलैंगिक संबंधो के कानूनी जमा पहने के बाद इस तरह की कई आवाजे और उठेंगी और स्वेक्षा और सहमति की नई परिभाषा परिभाषित करने का दबाव भी बढेगा . ......
समलैंगिकता को कानूनी मान्यता मिलने के बाद भले ही समलैंगिक संबंधो की वकालत करने वाले लोगो की मुराद पूरी हो जाए लेकिन परिवार का बिखंदन शुरू हो जाएगा और स्त्री पुरुष की नई परिभाषा लिखी जाएगी क्योकि भारत जसे देश में कोई इस बात को आसानी से हजम नहीं कर सकेगा की उसकी पुत्रबधू की जगह कोई लड़की नहीं बल्कि उसके पुत्र जैसा लड़का आए या उसे दामाद के रूप में एक लड़की मिले और जब -जब ऐसा होगा तब -तब परिवार में होगा बिखंडन ....जो न समाज के लिए ठीक होगा और न देश के लिए .......

Thursday 28 April 2016

रिश्तो का भवरजाल 

     . . . . .  सामाजिकता की रसोई . . . . . . .  

 सामाजिकता की रसोई से संबेदनाओ का तड़का 

सदियो से परम्पराओ और संयुक्तता के आक्सीजन से निर्वाध जिंदगी जीते आ रही हमारी संस्कृति का दम आज आधुनिकता की दूषित फ़िज़ा में घुटता हुआ सा महसूस होने लगा है। यह बदलते रिश्तों की मौसमी बयार है? या फिर आधुनिकता की धूल ?
इस परीक्षण से गुजरने से पहले ही कराहते रिश्ते दम तोड़ दे रहे है, लिहाज़ा उपचार की नौबत ही नहीं आती, मज़बूरी का रोना रोकर आँखों में बेबसी के बनावटी भाव से दो आंसू बहा देना कुछ ज्यादा ही आसान लगने लगा है। लाइलाज होती इस बीमारी पर आखिर शोध क्यों नहीं होते ? क्यों नहीं बन रहे ऐसे टीके और औषधियां जो दम तोड़ते रिश्तों को एक नया जीवन दे सकें।
शायद ! ना हमारे पास शोध का वक्त है और ना ही बीमार रिश्ते के परवरिश की चाह, सामाजिकता की रसोई से संबेदनाओ का तड़का गायब होने के कारण अपनेपन का स्वाद फीका सा हो गया है। बेस्वाद हुई आत्मीयता और अपनेपन से रिश्तों का पेट भरना भी मुनासिब नहीं रहा फलस्वरूप रिश्ते कुपोषण का शिकार होकर दम तोड़ दे रहे हैं। कहते भी हैं कि किसी व्यक्ति या परिवार में बीमारी का पहला कारण उसका खान पान होता है,
सामाजिकता की रसोई जो अब तक अटूट रिश्तों का आइना बनकर वाहवाही लूटती रही, शायद उसी ने रिश्तों के खान-पान के मेन्यू को बदलकर रख दिया।संस्कारो की थाली में परोसे जा रहे आधुनिकता रुपी चाइनीज व्यंजनों ने रिश्तों का स्वास्थ्य ही बिगाड़ दिया, खान पान के चलते कमजोर हुए इन रिश्तों को शायद रसोई का प्यार नहीं मिल पा रहा? वक्त के बदलते हालात में ये रिश्ते टूटकर बिखरने को मजबूर नज़र आने लगे हैं ।हमारे रिश्तों की गहराई और सम्पन्नता बताने वाली "एक थाली - एक रसोईं" को आधुनिकता की धूल ने दूषित कर दिया, लिहाजा खान पान बिगडा और रिश्ते बीमार हो गए। काफी मिन्नतों, दुआओ और प्रायोगिक परीक्षणो के बाद भी इनके स्वास्थ्य में सुधार की उम्मीद ना देखकर हमारी चिंताओं ने हमें इस पर चितन करने को मजबूर कर दिया ।खान पान की जिम्मेदार रसोई से मै ढेरो सवाल करने लगी ...?
कि आखिर जिस "रसोई" पर पूरे परिवार की नज़र रहती थी, जो हमारे परिवार के हर सदस्य की पसंद को एक करती थी, जो हमें प्यार से एक साथ बैठाती थी, जो हमें एक ही चीज पर सहमत होना सिखाती थी, जो हमारी एकता की सुरम्य गाथा गाती थी आज उस गाथा को गाने वाली रसोई की आवाज़ बेसुरी कैसे हो गई ? भरे हुए गले से रसोई का जवाब सुनकर मैं अचंभित और अवाक थी लेकिन अंतरात्मा में उठी हलचल ने चिंतन को और भी गहरा दिया, अतीत की कथा और वर्तमान की व्यथा में उलझे हुए मन में घर- बाहर के साथ -साथ दोस्तों ,परिचितों और रिश्तेदारों व उन अपनों की रसोई का स्वाकी यह द एक -एक कर याद आने लगा जिसमे रिश्तो के धागों के बीच प्यार के मोती पिरोए हुए थे . इसी के बाद  दार्शनिकता की तुलना सामाजिकता की रसोई से करते मुझे देर ना लगी और मेरे अनुत्तरित सवालो के जवाब स्वतः मिलने शुरू हो गए ।हल होते सवालो से होठो पर मुस्कराहट के भाव् थे तो ह्रदय में बेदना की पीड़ा भी। कहे -अनकहे अल्फाज़ो में मैं उन एहसासो को पढ़ने की कोशिश कर रही थी और पढ़ने की इसी कोशिश में ही घर की रसोई से मुझे सामाजिकता की रसोई की सारी बाते समझ में आ गई थी, मैं उछल पडी क्योकि मेरे कई सवाल हल होने के करीब थे और काफी हद तक रिश्तों के बिगड़ते स्वास्थ्य के सवालो के कुछ जवाब मुझे मिल गए थे और बचे हुए अनसुलझे सवालो के लिए नए सूत्र की खोज में मैं निकल पड़ी हूँ इस यकीन के साथ कि एक न एक दिन मुझे अपने सभी सवालों के जबाब जरुर मिल जाएंगे ......
खोज की इसी डगर पर कुछ पग ही बढ़ाए होगे कि  शिशिर “मधुकर” की यह लाइने बरबस याद अ गई ...


जीवन में ना जाने ये कैसा परिवर्तन अब आया है

मिटते रिश्तों की छवियों ने मन को वीरान बनाया है

कभी ना सोचा था जो हमने कैसा आज नज़ारा है

सब अपने और परायों ने सीने में खंजर मारा है\

पहले तो दर्द भी होता था उसका भी अब नाम नहीं

कितनी भी हम कोशिश कर लें पर मिलता आराम नहीं

किस्मत के इस खेल में हमने जब भी दाँव लगाए है

बुरी तरह हर बाज़ी हारे कुछ ऐसे पासे आए हैं

इस खेल में देखेंगे आगे अब क्या क्या किस्सा होता है

सच को कोई पहचान मिलेगी या झूठ महल में सोता है

Wednesday 20 April 2016


माँ ..
        ....... अनुपम ......अथाह .... ... निशब्द 

माँ ... बच्चे के मुख से निकलने वाला पहला शब्द ,पिता का सबल , बेटे की जिद , बेटी की रीढ़  जो हर कुछ में है लेकिन दिखाती ऐसे मानो कुछ भी न हो . निराशा में आशा की किरण  ,ठण्ड में हल्की धुप तो गर्मी में गीली मिट्टी माँ , . दुनिया का ऐसा शब्द जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सका है माँ तो माँ है बस माँ है ... आज कुछ लिखने बैठी तो बस माँ की याद आ गई और फिर यादो का ऐसा ज्वार-भाटा आया कि सबकुछ बहा ले गया और अपने पीछे छोड़ गया तो महज यादे जिसमे मैं थी मेरी माँ थी और इन सबसे जुडी बेपनाह यादे ......मैं इन्ही यादो के बीच हिचकौले ले रही थी कि अचानक हाल का ही एक सच मेरे जहन में न जाने कंहा से अ गया ....एक ऐसा सच जो पर्त दर पर्त आंसुओ में इतना सराबोर कर दे कि वजूद ही अपना अस्तित्व खोने लगे  .... 

मैंने अभी इस सच को साझा करने के लिए शब्दों की तलाश ही की थी कि मेरे जहाँ ने मुझे झकझोरा और मैंने उन्ही शब्दों में इस सच को सामने लाने का फैसला किया जिन शब्दों में मेरे एक पत्रकार साथी ने यूपी के एक तेज तर्रार पुलिस अफसर नवनीत सिकेरा का अनुभव मुझसे साझा किया था .... इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह है कि इसे पढना जरुरी है तो पढ़ाना भी ..........

कहने को यह ब्लॉग तो मेरा है लेकिन मैं अब इसमें शब्द डी.आई.जी. नवनीत सिकेरा जी के पिरोना चाहती हूँ शायद इसलिए कि कंही किसी शब्द में मेरे आंसू मुझे कमजोर न कर दे  ...... 

करीब 7 बजे होंगे,
शाम को मोबाइल बजा ।
उठाया तो उधर से रोने की आवाज़....
मैंने शांत कराया और पूछा कि भाभीजी आखिर हुआ क्या?
उधर से आवाज़ आई..
आप कहाँ हैं और कितनी देर में आ सकते हैं ?
मैंने कहा:-"आप परेशानी बताइये..!"
और "भाई साहब कहाँ हैं...?माताजी किधर हैं..?" "आखिर हुआ क्या...?"
लेकिन
उधर से केवल एक रट कि आप आ जाइए, मैंने आश्वाशन दिया कि कम से कम एक घंटा लगेगा.जैसे तैसे पूरी घबड़ाहट में पहुँचा.
देखा तो भाई साहब (हमारे मित्र जो जज हैं) सामने बैठे हुए हैं.
भाभीजी रोना चीखना कर रही हैं,13 साल का बेटा भी परेशान है. 9 साल की बेटी भी कुछ नहीं कह पा रही है.
मैंने भाई साहब से पूछा
कि आखिर क्या बात है.
भाई साहब कोई जवाब नहीं दे रहे थे.
फिर भाभी जी ने कहा ये देखिये तलाक के पेपर, ये कोर्ट से तैयार कराके लाये हैं, मुझे तलाक देना चाहते हैं,
मैंने पूछा -ये कैसे हो सकता है. इतनी अच्छी फैमिली है. 2 बच्चे हैं. सब कुछ सेटल्ड है. प्रथम दृष्टि में मुझे लगा ये मजाक है.
लेकिन मैंने बच्चों से पूछा दादी किधर हैं,
बच्चों ने बताया पापा ने उन्हें 3 दिन पहले नोएडा के वृद्धाश्रम में शिफ्ट कर दिया है.
मैंने घर के नौकर से कहा
मुझे और भाई साहब को चाय पिलाओ,
कुछ देर में चाय आई. भाई साहब को बहुत कोशिशें कीं पिलाने की.
लेकिन उन्होंने नहीं पिया. और कुछ ही देर में वो एक मासूम बच्चे की तरह फूटफूट कर रोने लगे. बोले मैंने 3 दिन से कुछ भी नहीं खाया है. मैं अपनी 61 साल की माँ को कुछ लोगों के हवाले करके आया हूँ.
पिछले साल से मेरे घर में उनके लिए इतनी मुसीबतें हो गईं कि पत्नी (भाभीजी) ने कसम खा ली. कि मैं माँ जी का ध्यान नहीं रख सकती. ना तो ये उनसे बात करती थी
और ना ही मेरे बच्चे बात करते थे. रोज़ मेरे कोर्ट से आने के बाद माँ खूब रोती थी. नौकर तक भी अपनी मनमानी से व्यवहार करते थे.
माँ ने 10 दिन पहले बोल दिया.. बेटा तू मुझे ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट कर दे.
मैंने बहुत कोशिशें कीं पूरी फैमिली को समझाने की, लेकिन किसी ने माँ से सीधे मुँह बात नहीं की.
जब मैं 2 साल का था तब पापा की मृत्यु हो गई थी. दूसरों के घरों में काम करके मुझे पढ़ाया. मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं जज हूँ . लोग बताते हैं माँ कभी दूसरों के घरों में काम करते वक़्त भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं.
उस माँ को मैं ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट करके आया हूँ. पिछले 3 दिनों से मैं अपनी माँ के एक-एक दुःख को याद करके तड़प रहा हूँ, जो उसने केवल मेरे लिए उठाये.
मुझे आज भी याद है जब..
मैं 10th की परीक्षा में अपीयर होने वाला था. माँ मेरे साथ रात रात भर बैठी रहती.
एक बार माँ को बहुत फीवर हुआ मैं तभी स्कूल से आया था. उसका शरीर गर्म था, तप रहा था. मैंने कहा माँ तुझे फीवर है हँसते हुए बोली अभी खाना बना रही थी इसलिए गर्म है.
लोगों से उधार माँग कर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय से एलएलबी तक पढ़ाया. मुझे ट्यूशन तक नहीं पढ़ाने देती थीं कि कहीं मेरा टाइम ख़राब ना हो जाए. कहते-कहते रोने लगे..
और बोले--जब ऐसी माँ के हम नहीं हो सके तो हम अपने बीबी और बच्चों के क्या होंगे. हम जिनके शरीर के टुकड़े हैं,आज हम उनको ऐसे लोगों के हवाले कर आये, जो उनकी आदत, उनकी बीमारी,उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते,
जब मैं ऐसी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता तो मैं किसी और के लिए भला क्या कर सकता हूँ.
आज़ादी अगर इतनी प्यारी है और माँ इतनी बोझ लग रही हैं, तो मैं पूरी आज़ादी देना चाहता हूँ.
जब मैं बिना बाप के पल गया तो ये बच्चे भी पल जाएंगे. इसीलिए मैं तलाक देना चाहता हूँ,
सारी प्रॉपर्टी इन लोगों के हवाले करके उस ओल्ड ऐज होम में रहूँगा. कम से कम मैं माँ के साथ रह तो सकता हूँ.
और अगर इतना सबकुछ कर के माँ आश्रम में रहने के लिए मजबूर है, तो एक दिन मुझे भी आखिर जाना ही पड़ेगा. माँ के साथ रहते-रहते आदत भी हो जायेगी. माँ की तरह तकलीफ तो नहीं होगी.
जितना बोलते उससे भी ज्यादा रो रहे थे. बातें करते करते रात के 12:30 हो गए. मैंने भाभीजी के चेहरे को देखा.
उनके भाव भी प्रायश्चित्त और ग्लानि से भरे हुए थे. मैंने ड्राईवर से कहा अभी हम लोग नोएडा जाएंगे.
भाभीजी और बच्चे हम सारे लोग नोएडा पहुँचे.
बहुत ज़्यादा रिक्वेस्ट करने पर गेट खुला. भाई साहब ने उस गेटकीपर के पैर पकड़ लिए, बोले मेरी माँ है, मैं उसको लेने आया हूँ,
चौकीदार ने कहा क्या करते हो साहब,
भाई साहब ने कहा मैं जज हूँ,
उस चौकीदार ने कहा:-
"जहाँ सारे सबूत सामने हैं तब तो आप अपनी माँ के साथ न्याय नहीं कर पाये,
औरों के साथ क्या न्याय करते होंगे साहब।
इतना कहकर हम लोगों को वहीं रोककर वह अन्दर चला गया.
अन्दर से एक महिला आई जो वार्डन थी.
उसने बड़े कातर शब्दों में कहा:-
"2 बजे रात को आप लोग ले जाके कहीं मार दें, तो मैं अपने ईश्वर को क्या जबाब दूंगी..?"
मैंने सिस्टर से कहा आप विश्वास करिये. ये लोग बहुत बड़े पश्चाताप में जी रहे हैं.
अंत में किसी तरह उनके कमरे में ले गईं. कमरे में जो दृश्य था, उसको कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ.
केवल एक फ़ोटो जिसमें पूरी फैमिली है और वो भी माँ जी के बगल में, जैसे किसी बच्चे को सुला रखा है.
मुझे देखीं तो उनको लगा कि बात न खुल जाए
लेकिन जब मैंने कहा हमलोग आप को लेने आये हैं, तो पूरी फैमिली एक दूसरे को पकड़ कर रोने लगी.
आसपास के कमरों में और भी बुजुर्ग थे सब लोग जाग कर बाहर तक ही आ गए.
उनकी भी आँखें नम थीं.
कुछ समय के बाद चलने की तैयारी हुई. पूरे आश्रम के लोग बाहर तक आये. किसी तरह हम लोग आश्रम के लोगों को छोड़ पाये.
सब लोग इस आशा से देख रहे थे कि शायद उनको भी कोई लेने आए, रास्ते भर बच्चे और भाभी जी तो शान्त रहे .......
लेकिन भाई साहब और माताजी एक दूसरे की भावनाओं कोअपने पुराने रिश्ते पर बिठा रहे थे.घर आते-आते करीब 3:45 हो गया.
👩🏻 भाभीजी भी अपनी ख़ुशी की चाबी कहाँ है ये समझ गई थीं.
मैं भी चल दिया. लेकिन रास्ते भर वो सारी बातें और दृश्य घूमते रहे.
👵🏻 माँ केवल माँ है. 👵🏻
उसको मरने से पहले ना मारें.

Monday 18 April 2016

                 O    .......  MY ........ GOD

  .....स्वार्थ की बलिबेदी पर भगवान् से 

         महापुरुष तक ....

.. न कोई रजिस्ट्री , न खारिजं दाखिल और न ही किसी अधिकारी और राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता ,बस जरूरत है किसी ईष्टदेव की केवल एक मूर्ति अथवा कब्र की जिसपर बाद में मंदिर , मस्जिद या गिरजाघर की बुनियाद खड़ी की जा सके .यानी जो जमीन सरकारी वह जमीन हमारी कुछ यही फंडा है तेजी से पनपती उस जमात का जो धर्म को कमाई के धंधे में तब्दील करना चाहता है .समय और परिस्थितियों के अनुसार भू माफिया भी विवादित जमीन पर कब्जे के लिए इस नायब फार्मूले का इस्तेमाल करते रहे है . गावं हो शहर हो या मेट्रो सिटी सभी जगह ऐसा ही नजारा दिखने में मिल जाता है .अब धर्म और धार्मिक स्थल का मामला हो तो भला बोलने का साहस कौन जुटाए .लिहाजा धर्मस्थली को हटाना मुश्किल ही नामुमकिन हो जाता है शायद ही कभी ऐसे अवैध पूजा स्थलों को हटाने की प्रक्रिया कभी अमल में लाई जा सकी हो लिहाजा शांति व्यवस्था का हवाला देकर ऐसी शिकायतों को ठंडे बसते में दाल दिया जाता है .क्योकि हमारे समाज में धर्म की प्रधानता जो है .अब इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है की जिस धर्म को हथियार बना कर वह कमाई का रास्ता तैयार कर रहे है वह धर्म क्या कहता है और वह अपने मानने वालो को क्या सन्देश देता है ...
ऐसे में सार्वजनिक स्थान पर पूजास्थल न बनने देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक सराहनीय कदम के रूप में देखा जाना चाहिए.इस फैसले ने आशा भरी निगाहों से उच्च न्यायलय और उच्चतम न्यायलय की ओर देखने वाले चिंतनशील लोगो को ओर मजबूत किया है . अब देखना है की केंद्र और राज्य सरकारों का इस पर क्या मत होता है . क्योकि इस फैसले से न सिर्फ धर्म की ठेकेदारी करने वाले लोगो के पेट में दर्द होगा बल्कि राज्य और केंद्र सरकारों के लिए भी चिन्तनीय होगा ,खासकर उन राजनीतिक पार्टियों के लिए जो अपने महापुरुषों और नेताओ की छवि में अपना राजनीतिक भाबिष्य तलाशती है और पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए गावं से लेकर शहरो तक में पार्टियों के इन तारणहारो की मूर्तिया लगाने के लिए चिर प्रचलित फार्मूले का इस्तेमाल करते है ...जाहिर है राजनीतिक पार्टिया भी इस फैसले के पीछे छुपे सन्देश को भी समझ रही होगी और इशारे को भी .....शायद इसीलिए इस पर अभीतक वह कारगर कदम नहीं उठाए गए जो लाजमी है  .......
सबसे ख़ास बात तो यह की इस फैसले की बुनियाद गुजरात में पड़ी .वही गुजरात जंहा नरेंद्र मोदी का शासन है और अपने को धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टी का नेता बताने वाले कई धुरंधर नरेंद्र मोदी को एक ख़ास समुदाय का नेता ताल ठोक - ठोक कर कहते है .लेकिन सन 2009 के गुजरात हाई कोर्ट के फैसले जिसमे अहमदाबाद के अधिकारियो को सडको पर बने पूजा स्थलों सहित सभी अवैध ढांचो को गिराने का निर्देश था पर मोदी सरकार ने बखूबी अमल किया और इस फैसले के रास्ते में आने वाले उन सैकडो अवैध निर्मित पूजा स्थलों को हटा दिया गया जिन पूजा स्थलों से जुड़े समुदाय का नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को माना जाता है और जिसके पक्ष में कार्य करने के आरोप उन पर विपक्षी पार्टी के नेता अक्सर लगाते रहे है .लेकिन मोदी ने जिस तरह गुजरात हाई कोर्ट के फैसले को अमल में लाने की कारवाई अमल में लाई उसने उनके दृढ इरादों और इच्छा शक्ति की झलक जरूर पेश की .इसके खिलाफ केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कहा है की वह राज्य सरकारों से बात कर इस फैसले को अमल में लाने की कारवाई सुनिश्चित करे ...तो अब वक्त का तकाजा यही है की इस फैसले को उसके वास्तविक रूप में कडाई से अमल में लाया जाए तभी देश और समाज का भला हो सकता है क्योकि भगवान् और पैगम्बर कभी नहीं चाहते की वह बिबाद और लोगो की परेशानी का सबब बने वह चाहते है तो केवल और केवल मानव कल्याण ....और इसको इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए

लेखिका सभी धर्म और मजहब का सम्मान करती है लेकिन इसकी आड़ में स्वार्थ और व्यापार की प्रखर विरोधी है .