रिश्तो का भवरजाल |
. . . . . सामाजिकता की रसोई . . . . . . .
सामाजिकता की रसोई से संबेदनाओ का तड़का
सदियो से परम्पराओ और संयुक्तता के आक्सीजन से निर्वाध जिंदगी जीते आ रही हमारी संस्कृति का दम आज आधुनिकता की दूषित फ़िज़ा में घुटता हुआ सा महसूस होने लगा है। यह बदलते रिश्तों की मौसमी बयार है? या फिर आधुनिकता की धूल ?
इस परीक्षण से गुजरने से पहले ही कराहते रिश्ते दम तोड़ दे रहे है, लिहाज़ा उपचार की नौबत ही नहीं आती, मज़बूरी का रोना रोकर आँखों में बेबसी के बनावटी भाव से दो आंसू बहा देना कुछ ज्यादा ही आसान लगने लगा है। लाइलाज होती इस बीमारी पर आखिर शोध क्यों नहीं होते ? क्यों नहीं बन रहे ऐसे टीके और औषधियां जो दम तोड़ते रिश्तों को एक नया जीवन दे सकें।
शायद ! ना हमारे पास शोध का वक्त है और ना ही बीमार रिश्ते के परवरिश की चाह, सामाजिकता की रसोई से संबेदनाओ का तड़का गायब होने के कारण अपनेपन का स्वाद फीका सा हो गया है। बेस्वाद हुई आत्मीयता और अपनेपन से रिश्तों का पेट भरना भी मुनासिब नहीं रहा फलस्वरूप रिश्ते कुपोषण का शिकार होकर दम तोड़ दे रहे हैं। कहते भी हैं कि किसी व्यक्ति या परिवार में बीमारी का पहला कारण उसका खान पान होता है,
सामाजिकता की रसोई जो अब तक अटूट रिश्तों का आइना बनकर वाहवाही लूटती रही, शायद उसी ने रिश्तों के खान-पान के मेन्यू को बदलकर रख दिया।संस्कारो की थाली में परोसे जा रहे आधुनिकता रुपी चाइनीज व्यंजनों ने रिश्तों का स्वास्थ्य ही बिगाड़ दिया, खान पान के चलते कमजोर हुए इन रिश्तों को शायद रसोई का प्यार नहीं मिल पा रहा? वक्त के बदलते हालात में ये रिश्ते टूटकर बिखरने को मजबूर नज़र आने लगे हैं ।हमारे रिश्तों की गहराई और सम्पन्नता बताने वाली "एक थाली - एक रसोईं" को आधुनिकता की धूल ने दूषित कर दिया, लिहाजा खान पान बिगडा और रिश्ते बीमार हो गए। काफी मिन्नतों, दुआओ और प्रायोगिक परीक्षणो के बाद भी इनके स्वास्थ्य में सुधार की उम्मीद ना देखकर हमारी चिंताओं ने हमें इस पर चितन करने को मजबूर कर दिया ।खान पान की जिम्मेदार रसोई से मै ढेरो सवाल करने लगी ...?
कि आखिर जिस "रसोई" पर पूरे परिवार की नज़र रहती थी, जो हमारे परिवार के हर सदस्य की पसंद को एक करती थी, जो हमें प्यार से एक साथ बैठाती थी, जो हमें एक ही चीज पर सहमत होना सिखाती थी, जो हमारी एकता की सुरम्य गाथा गाती थी आज उस गाथा को गाने वाली रसोई की आवाज़ बेसुरी कैसे हो गई ? भरे हुए गले से रसोई का जवाब सुनकर मैं अचंभित और अवाक थी लेकिन अंतरात्मा में उठी हलचल ने चिंतन को और भी गहरा दिया, अतीत की कथा और वर्तमान की व्यथा में उलझे हुए मन में घर- बाहर के साथ -साथ दोस्तों ,परिचितों और रिश्तेदारों व उन अपनों की रसोई का स्वाकी यह द एक -एक कर याद आने लगा जिसमे रिश्तो के धागों के बीच प्यार के मोती पिरोए हुए थे . इसी के बाद दार्शनिकता की तुलना सामाजिकता की रसोई से करते मुझे देर ना लगी और मेरे अनुत्तरित सवालो के जवाब स्वतः मिलने शुरू हो गए ।हल होते सवालो से होठो पर मुस्कराहट के भाव् थे तो ह्रदय में बेदना की पीड़ा भी। कहे -अनकहे अल्फाज़ो में मैं उन एहसासो को पढ़ने की कोशिश कर रही थी और पढ़ने की इसी कोशिश में ही घर की रसोई से मुझे सामाजिकता की रसोई की सारी बाते समझ में आ गई थी, मैं उछल पडी क्योकि मेरे कई सवाल हल होने के करीब थे और काफी हद तक रिश्तों के बिगड़ते स्वास्थ्य के सवालो के कुछ जवाब मुझे मिल गए थे और बचे हुए अनसुलझे सवालो के लिए नए सूत्र की खोज में मैं निकल पड़ी हूँ इस यकीन के साथ कि एक न एक दिन मुझे अपने सभी सवालों के जबाब जरुर मिल जाएंगे ......
इस परीक्षण से गुजरने से पहले ही कराहते रिश्ते दम तोड़ दे रहे है, लिहाज़ा उपचार की नौबत ही नहीं आती, मज़बूरी का रोना रोकर आँखों में बेबसी के बनावटी भाव से दो आंसू बहा देना कुछ ज्यादा ही आसान लगने लगा है। लाइलाज होती इस बीमारी पर आखिर शोध क्यों नहीं होते ? क्यों नहीं बन रहे ऐसे टीके और औषधियां जो दम तोड़ते रिश्तों को एक नया जीवन दे सकें।
शायद ! ना हमारे पास शोध का वक्त है और ना ही बीमार रिश्ते के परवरिश की चाह, सामाजिकता की रसोई से संबेदनाओ का तड़का गायब होने के कारण अपनेपन का स्वाद फीका सा हो गया है। बेस्वाद हुई आत्मीयता और अपनेपन से रिश्तों का पेट भरना भी मुनासिब नहीं रहा फलस्वरूप रिश्ते कुपोषण का शिकार होकर दम तोड़ दे रहे हैं। कहते भी हैं कि किसी व्यक्ति या परिवार में बीमारी का पहला कारण उसका खान पान होता है,
सामाजिकता की रसोई जो अब तक अटूट रिश्तों का आइना बनकर वाहवाही लूटती रही, शायद उसी ने रिश्तों के खान-पान के मेन्यू को बदलकर रख दिया।संस्कारो की थाली में परोसे जा रहे आधुनिकता रुपी चाइनीज व्यंजनों ने रिश्तों का स्वास्थ्य ही बिगाड़ दिया, खान पान के चलते कमजोर हुए इन रिश्तों को शायद रसोई का प्यार नहीं मिल पा रहा? वक्त के बदलते हालात में ये रिश्ते टूटकर बिखरने को मजबूर नज़र आने लगे हैं ।हमारे रिश्तों की गहराई और सम्पन्नता बताने वाली "एक थाली - एक रसोईं" को आधुनिकता की धूल ने दूषित कर दिया, लिहाजा खान पान बिगडा और रिश्ते बीमार हो गए। काफी मिन्नतों, दुआओ और प्रायोगिक परीक्षणो के बाद भी इनके स्वास्थ्य में सुधार की उम्मीद ना देखकर हमारी चिंताओं ने हमें इस पर चितन करने को मजबूर कर दिया ।खान पान की जिम्मेदार रसोई से मै ढेरो सवाल करने लगी ...?
कि आखिर जिस "रसोई" पर पूरे परिवार की नज़र रहती थी, जो हमारे परिवार के हर सदस्य की पसंद को एक करती थी, जो हमें प्यार से एक साथ बैठाती थी, जो हमें एक ही चीज पर सहमत होना सिखाती थी, जो हमारी एकता की सुरम्य गाथा गाती थी आज उस गाथा को गाने वाली रसोई की आवाज़ बेसुरी कैसे हो गई ? भरे हुए गले से रसोई का जवाब सुनकर मैं अचंभित और अवाक थी लेकिन अंतरात्मा में उठी हलचल ने चिंतन को और भी गहरा दिया, अतीत की कथा और वर्तमान की व्यथा में उलझे हुए मन में घर- बाहर के साथ -साथ दोस्तों ,परिचितों और रिश्तेदारों व उन अपनों की रसोई का स्वाकी यह द एक -एक कर याद आने लगा जिसमे रिश्तो के धागों के बीच प्यार के मोती पिरोए हुए थे . इसी के बाद दार्शनिकता की तुलना सामाजिकता की रसोई से करते मुझे देर ना लगी और मेरे अनुत्तरित सवालो के जवाब स्वतः मिलने शुरू हो गए ।हल होते सवालो से होठो पर मुस्कराहट के भाव् थे तो ह्रदय में बेदना की पीड़ा भी। कहे -अनकहे अल्फाज़ो में मैं उन एहसासो को पढ़ने की कोशिश कर रही थी और पढ़ने की इसी कोशिश में ही घर की रसोई से मुझे सामाजिकता की रसोई की सारी बाते समझ में आ गई थी, मैं उछल पडी क्योकि मेरे कई सवाल हल होने के करीब थे और काफी हद तक रिश्तों के बिगड़ते स्वास्थ्य के सवालो के कुछ जवाब मुझे मिल गए थे और बचे हुए अनसुलझे सवालो के लिए नए सूत्र की खोज में मैं निकल पड़ी हूँ इस यकीन के साथ कि एक न एक दिन मुझे अपने सभी सवालों के जबाब जरुर मिल जाएंगे ......
खोज की इसी डगर पर कुछ पग ही बढ़ाए होगे कि शिशिर “मधुकर” की यह लाइने बरबस याद अ गई ...
Anita Ji, I read your article with interest and was happy to note that you found my poem relevant to the topic.
ReplyDeleteShishir Madhukar
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